महाराष्ट्र (Maharashtra) में महा विकास अघाड़ी की करारी हार ने कांग्रेस पार्टी को फिर से शुरुआती स्थिति में ला दिया है. 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद, महायुति के खिलाफ़ हालात बन गए थे और इस पुरानी पार्टी के पास सबसे अमीर भारतीय राज्य में जीत हासिल करके भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोकने का मौका था लेकिन, एमवीए के चौंकाने वाले प्रदर्शन ने राष्ट्रीय पटल पर कांग्रेस के पुनरुत्थान की उम्मीदों को तोड़ दिया. इन नतीजों ने आम चुनावों में हासिल की गई इंडिया गठबंधन की बढ़त को भी खत्म कर दिया. इसने "संविधान को बचाने" और जाति जनगणना जैसे कांग्रेस के मुख्य चुनावी मुद्दों की भी हवा निकाल दी, जिन्हें लोकसभा चुनावों के दौरान लोगों ने खूब समर्थन दिया था.
फ्लॉप चुनाव प्रबंधन
कांग्रेस भले ही लगातार इनकार कर रही हो, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बीच योजना और तैयारियों में भारी अंतर देखा जा सकता है. भगवा पार्टी ने पहले दिन से ही अपनी कमजोरियों पर काम करना शुरू कर दिया था. इसने कई तरह के चेक और बैलेंस बनाए रखे थे.
कांग्रेस पार्टी का लापरवाह रवैया और अति आत्मविश्वास ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गया. पार्टी खेल में बिल्कुल भी शामिल नहीं दिखी. दूसरी ओर एक्शन मोड में, लड़ने के लिए तैयार भाजपा एक के बाद एक सधे कदमों और पूरी रणनीति के साथ आगे बढ़ी. कांग्रेस के पास इसका मुकाबला करने के लिए कोई रणनीति नहीं थी. सत्तारूढ़ गठबंधन के हमलों से उसके उम्मीदवारों को खुद ही जूझना पड़ा.
कांग्रेस ने 108 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उसका नेतृत्व किला बचाने के लिए मुश्किल से ही मौजूद था. राहुल गांधी (7) और मल्लिकार्जुन खड़गे (9) ने मिलकर सिर्फ़ 16 रैलियां कीं और जब तक प्रियंका गांधी वाड्रा तीन रैलियां और एक रोड शो के साथ आगे आईं, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उनका अभियान महिला मतदाताओं को पार्टी के पाले में लाने पर केंद्रित हो सकता था, लेकिन उनकी कोई भूमिका नहीं थी क्योंकि वे 13 नवंबर तक वायनाड में अपनी पहली चुनावी लड़ाई लड़ती रहीं.
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महायुति ने सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना को नियंत्रित करने के लिए असंतुष्ट मतदाताओं को धीरे-धीरे अपने पक्ष में किया, जबकि कांग्रेस सोती रही. पार्टी के पास कोई ठोस कथानक नहीं था जो एमवीए अभियान को मजबूती दे सके और उसे एक मजबूत विकल्प बना सके. भाजपा ने कल्याण, विकास, हिंदुत्व और यहां तक कि राष्ट्रवाद के कुछ मुद्दों सहित चुनावी मुद्दों का एक गुलदस्ता बुना.
एमवीए ने उनके मुद्दों का मुकाबला करने या उसे खारिज करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए. चाहे वह कृषि संकट हो, बेरोजगारी हो, ग्रामीण संकट हो, मुद्रास्फीति हो या भ्रष्टाचार हो, इन्हें लेकर अभियान उदासीन, अस्पष्ट था और जमीन पर इसका कोई असर नहीं हुआ.
महाराष्ट्र चुनाव भी लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी के सबसे मजबूत चुनावी नारे पर जनमत संग्रह था. लेकिन "संविधान बचाओ" का नारा फीका पड़ गया. नागपुर और कोल्हापुर में चुनाव के बीच उन्होंने दो संविधान सभाएं कीं, जहां पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा. जाति जनगणना की आक्रामक मांग पर भी पार्टी मतदाताओं को लुभाने में विफल रही. इस बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा "एक हैं तो सेफ हैं" और "बंटेंगे तो कटेंगे" के नारे को आगे बढ़ाने में सफल रहे. कांग्रेस अपनी वैचारिक लड़ाई में महाराष्ट्र के मतदाताओं को मनाने में विफल रही है.
"गुजरात बनाम मुंबई" और अडानी समूह द्वारा गुजरात में कारोबार छीन लेने के मुद्दे भी ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुए, खासकर अगर मुंबई में मिली हार को इसका एक पैमाना माना जाए.
खोया महत्वपूर्ण वोट बैंक
चाहे विदर्भ हो या मराठवाड़ा, कांग्रेस पार्टी ने अपना अहम वोट बैंक खो दिया. प्याज किसानों से लेकर सोयाबीन किसानों तक, कृषि समुदाय कांग्रेस पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण वोट बैंक है. किसानों के मुद्दों को उठाना और उनके लिए आंदोलन करना इस मतदाता का दिल जीत सकता था. लेकिन पार्टी अपने क्षत्रपों के बीच अंदरूनी कलह और नेतृत्व की होड़ में उलझी रही, जो अपने ही इलाकों तक सीमित थे. नतीजतन, यह महत्वपूर्ण वोट बैंक खो गया. दलितों और मराठों ने कहीं और देखने का फैसला किया.
भगवा पार्टी की भारी जीत में महिला मतदाताओं की अहम भूमिका रही और कांग्रेस ने दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ी, जबकि इससे पहले मध्य प्रदेश में भाजपा ने लाडली बहना योजना के साथ उसे पटखनी दी थी. हालांकि इसने अपने घोषणापत्र में महालक्ष्मी योजना का वादा किया था, जिसमें 3,000 रुपये देने का वादा किया गया था, लेकिन पार्टी इसे मतदाताओं को बेचने या उन्हें पर्याप्त रूप से सूचित करने में विफल रही. शायद प्रियंका गांधी वाड्रा और सुप्रिया सुले की जोड़ी इस योजना के जरिए कुछ लाभ उठा सकती थीं, लेकिन वे जनता का ध्यान खींचने में विफल रहीं.
भाजपा अपनी कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को अपने पाले में लाने में भी सफल रही, जो आगे की लड़ाई में कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन सकती है.
एकता का अभाव
कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता चुनाव हार गए हैं. इनमें से ज़्यादातर मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. पूर्व सीएम पृथ्वीराज चव्हाण कराड दक्षिण विधानसभा सीट से भाजपा के डॉ. अतुलबाबा सुरेश भोसले से हार गए. तेओसा विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के राजेश श्रीरामजी वानखड़े ने कांग्रेस की दिग्गज यशोमति चंद्रकांत ठाकुर को हराकर जीत हासिल की. इसी तरह संगमनेर विधानसभा क्षेत्र में शिवसेना उम्मीदवार अमोल खताल ने कांग्रेस के दिग्गज बालासाहेब थोराट को 1,12,386 वोटों के साथ हराया, जबकि थोराट को 1,01,826 वोट मिले. प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले मामूली अंतर से जीत हासिल कर पाए.
नेताओं के बीच अहंकार और पेशेवर प्रतिद्वंद्विता के कारण नेता अलग-अलग माइक्रो-अभियान चला रहे थे, क्योंकि राहुल गांधी का नाना पटोले की ओर झुकाव यह संदेश दे रहा था कि वे सीएम पद के लिए सबसे आगे हैं. इससे नेताओं के बीच दुश्मनी और बढ़ गई, क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष अपनी योजना पर अड़े रहे और दूसरों से संपर्क नहीं किया, जो अपने काम में लग गए, जिससे पटोले को राज्य में पार्टी का अभियान चलाने के लिए अकेले छोड़ दिया गया.
धीमी गति में महा विकास 'गाड़ी'
हरियाणा में हार के बाद कांग्रेस पर हमला बोला गया, क्योंकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) नेताओं ने भाजपा के साथ सीधी लड़ाई हारने के लिए देश की सबसे पुरानी पार्टी की आलोचना की.
शुरुआत से ही यह उतार-चढ़ाव भरा सफर रहा - सौहार्द और एकता गायब थी. हर पार्टी ने अपने-अपने पैबंदों को दुरुस्त किया. सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर भी जुबानी जंग देखने को मिली. और करीब तीन दर्जन सीटों पर बागी एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए.
एमवीए के पास कोई चेहरा नहीं था. इसके नेता सिर्फ़ परिस्थितियों के कारण गठबंधन से बंधे हुए लग रहे थे. कांग्रेस आलाकमान उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकता था, शायद रैलियों और रोड शो की एक सीरीज से गति मिल सकती थी, लेकिन अगाढ़ी “गाड़ी” धीमी गति से चलती दिख रही थी और अंत में उसके टायरपंचरहोगए.
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