झारखंड विधानसभा की 81 सीटों पर चुनाव प्रचार अपने चरम पर है. यहां पर एनडीए गठबंधन जिसमें बीजेपी, आजसू और जेडीयू शामिल हैं कामुकाबलाझामुमो, कांग्रेस और आरजेडी गठबंधन से है. झारखंड में इन दोनों गठबंधन के अलावा जेकेएलएम जैसी पार्टियां भी मैदान में उतरी है, जो मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में जुटी हैं. 2019 के विधानसभा चुनावों में यहां झामुमो और कांग्रेस गठबंधन को 47 सीटें मिली थीं जबकि बीजेपी 25 सीटों पर ही सिमट गई थी. हरियाणा फतह के बाद भारतीय जनता पार्टी के हौसले बुलंद हैं.फिलहाल यहां हरियाणा जैसा एंटी इंकंबेंसी फैक्टर से भी बीजेपी को नहीं जूझना है क्यों कि पिछले 5 सालों से बीजेपी यहां सत्ता से दूर चल रही है. फिर भी झारखंड की सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी को लोहे के चने चबानेपड़ रहेहैं. फिर भी पार्टी के लिए झारखंड की राह आसान नहीं है.
1- झारखंड के आदिवासियों से बीजेपी को कितनी आस
झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य के रूप में जाना जाता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां पर आदिवासी करीब 26 प्रतिशत हैं.झारखंड में विधानसभा की 81 में से 28 सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व है. इस तरह इस राज्य में सत्ता की चाभी आदिवासियों के पास ही है. यहां 2005 से लेकर अब तक के हर चुनाव में आदिवासी ही मुद्दा रहा है. पर इस बार लोकसभा चुनावों में बीजेपी के प्रति आदिवासियों की नाराजगी स्पष्ट तौर पर दिखी .अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में एक भी भाजपा को नहीं मिलना यही दिखाता है कि पार्टी से आदिवासियों की नाराजगी खत्म नहीं हुई है. 2019 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी समाज का कुछ ऐसा ही मूड था. तब भाजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ रहे सभी ट्राइबल उम्मीदवार हार गए थे. इस बार लोकसभा चुनाव में आदिवासी समाज से ही आने वाले झारखंड के दो बार सीएम रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा चुनाव तक नहीं जीत पाए.
आम तौर पर झारखंड में अब तक बाबू लाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा, हेमंत सोरेन, चंपई सोरेन जैसे आदिवासी प्रदेश की बागडोर संभालते रहे हैं. केवल एक बार रघुबर दास के रूप में प्रदेश को एक गैर आदिवासी सीएम मिला था.बाकी के सभी 6 मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से ही ताल्लुक रखते हैं. दिलचस्प बात है कि इनमें से चार पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा, बाबू लाल मरांडी, चंपई सोरेन और मधु कोड़ा अभी बीजेपी में हैं. इन आदिवासी मुख्यमंत्रियों के अलावा कुछ और कद्दावर आदिवासी नेता लोबिन हेम्ब्रम, सीता सोरेन, गीता कोड़ा को भी बीजेपी ने पार्टी में शामिल कराया है. इसके बाद भी अगर बीजेपी को आदिवासी वोट नहीं मिलता दिख रहा है तो इसका क्या कारण हो सकता है?
2- मइया सम्मान योजना और अबुआ आवास योजना
मध्य प्रदेश में बीजेपी की लगातार चौथी बार जीत के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई महिलाओं को आर्थिक सहायता देने वाली स्कीम का कमाल बताया गया था. उसके बाद कई राज्यों में इस तरह की स्कीम शुरू की गई. महाराष्ट्र में लड़की बहिन योजना इसी का परिणाम है. इसी तरह झारखंड में भी मइया सम्मान योजना की शुरूआत की गई है. झारखंड सरकार ने अगस्त महीने से करीब 8 लाख महिलाओं के खाते में हर महीने एक हजार रुपये भेज रही है. इसी तरह गरीब परिवार के लोगों को के लिए करीब 20 लाख मुफ्त घर बनाने की योजना है. अबुआ आवास योजना और मइया सम्मान योजना हेमंत सोरेन के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है.
3- झामुमो नेताओं पर एफआईआर और ईडी के छापे
झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं पर एफआईआर और ईडी के छापों को पार्टी ने आदिवासी समुदाय के बीच अपने लिए विक्टिम कार्ड के रूप में खेला है.मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तारी के बाद बाहर आकर यह समझाने में सफल साबित हुए हैं कि उन्हें जानबूझकर फंसाया गया. वो बिल्कुल निर्दोष हैं . कोर्ट ने भी उन्हें निर्दोष माना है. बीजेपी के लिए यह भारी पड़ रहा है.
4- सरना को अलग धर्म के रूप में शामिल करने की मांग
भारत में आदिवासी समुदाय का एक हिस्सा हिंदू नहीं बल्कि सरना धर्म को मानता है. इनके मुताबिक सरना वो लोग हैं जो प्रकृति की पूजा करते हैं.झारखंड में यह आंदोलन सबसे अधिक मुखर है. झारखंड में इस धर्म को मानने वालों की सबसे ज्यादा 42 लाख आबादी है. यही कारण है कि झारखंड सरकार ने विधानसभा से प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार के पास सरना धर्म को अलग धर्म का दर्जा देने का प्रपोजल भेजा है. यही कारण है कि आदिवासियों के बीच पैठ बनाने में बीजेपी को मुश्किल हो रही है.
5- कल्पना सोरेने का जादू
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पत्नी पहले खुद को राजनीति से दूर रखती रही हैं. वो सामाजिक कार्यों में अपने को बिजी रखती रही हैं. पर हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद पार्टी को संभालने में उनकी बड़ी भूमिका रही है. अब वो विधायक बन चुकी हैं.झामुमो की सभाओं में जबरदस्त बोलती हैं. पूरे राज्य से पार्टी कैंडिडेट्स की डिमांड होती है कि कल्पना सोरेन उनके इलाके में एक बार जरूर आएं चुनाव प्रचार करने. कल्पना हाईली एजुकेटेड हैं, अच्छी वक्ता हैं.सबसे बड़ी बात यह भी है कि उन्हें केवल आदिवासी नहीं सवर्ण हिंदुओं के बीच अच्छी पहचान बना ली हैं.
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