निर्देशक: अभिषेक सक्सेना स्टार कास्ट: अरशद वारसी, मेहर विज, कियारा खन्ना, शिल्पी मारवाह और जीवा अहलूवालिया आदि कहां देख सकते हैं: थिएटर्स में क्रिटिक रेटिंग: 3
Banda Singh Chaudhry Review: इतिहास के पन्नों में पंजाब के आतंकवाद की तमाम कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं, लेकिन पहले ऑपरेशन ब्लू स्टार और फिर 1984 के सिख दंगे क्या हुए लोग उस आतंक की बात ही करने से डरने लगे. फ़िल्में बनीं भी तो ‘माचिस’ जैसी, जिसमें खालिस्तानी आतंकियों को सुहानभूति की नज़र से दिखाया गया, यहाँ तक कि सारा देश ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ पर गुनगुनाने लगा. ऐसे में उन्हें खुलकर गुंडा बोलना और उनके ख़िलाफ़ बंदा सिंह चौधरी जैसी फ़िल्म बनाना हिम्मत का काम तो है, लेकिन आज के दौर में जहां बाहुबली, केजीएफ और आरआरआर जैसी फ़िल्में बन रही हों वहाँ इस मूवी का कैनवास शर्तिया छोटा पड़ जाएगा.
कहानी 80 के दशक की है, बंदा सिंह चौधरी (अरशद वारसी) पंजाब में एक गाँव में शायद अकेला हिंदू है, तीन चार पीढ़ियों पहले परिवार बिहार से आया था. लेकिन अभी परिवार में वो अकेला है, अपने दोस्त तेजेंद्र और भाभी (शिल्पी मारवाह) को ही परिवार मानता है. सिख लड़की लल्ली (मेहर विज) से नज़रें चार होती हैं और लल्ली के भाई के एतराज के बावजूद दोनों की शादी हो जाती है. अचानक पंजाब में उग्रवाद की लहर शुरू होती है और शुरू हो जाता है हिन्दुओं को धमकाना डराना उनके घरों पर पोस्टर लगाना कि पंजाब छोड़ दो.
फिल्म की कहानी..
दिखाया जाता है कि कैसे ISI पंजाब के उग्रवादी गुटों को भड़काकर, पैसे देकर पंजाब में हिंसा फैलाकर उसे भारत से अलग करना चाहती है ताकि बांग्लादेश का बदला ले सके. बंदा भी एक हिंदू है तो उसके उसके घर भी पोस्टर चिपकाया जाता है, पूरा गाँव और दोस्त दहशत में आ जाते हैं. लेकिन बंदा अपना गाँव अपना घर छोड़ने को क़तई राज़ी नहीं. बाक़ी की कहानी बंदा और लल्ली के संघर्ष की कहानी है, वो भी उस हाल में जबकि लल्ली का सगा भाई उग्रवादियों के गैंग में चला गया है और गांव का कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि बंदा उस गाँव में रहे.
फिल्म में कमियां
इस मूवी का भविष्य तय है कि आज के दौर में बड़े कैनवास पर फ़िल्में देखने की आदी हो चुकी जनता इस मूवी को देखने थियेटर्स में नहीं जाएगी. OTT पर ज़रूर देख सकती है. हिंदुओं के लिए ये मूवी ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ भी इसलिए नहीं हो सकती कि इस मूवी ने केवल एक हिंदू की परेशानी पर फोकस किया है. भिंडरावाले तक का नाम नहीं लिया और ना ही तत्कालीन नेताओं का, हाँ बस से खींचकर हिंदुओं की हत्या का सीन ज़रूर शामिल किया गया. एक ISI का लीडर, उसके साथ दो ख़ालिस्ताबी, एक उग्रवादी उसके कुछ साथी और कुल ज़मा चार घरों की शूटिंग में ये फ़िल्म बना ली गई.
कलाकारों का अभिनय
मुश्किल से तीन चार सीन मार्केट या गांव से बाहर के शूट किए गए हैं, अरशद वारसी भी शुरू के सींस में काफ़ी मोटे लगते हैं और गेट अप भी अच्छा नहीं. कुल मिलाकर मूवी में अरशद, मेहर, कियारा, शिल्पी, जीवा आदि की एक्टिंग छोड़ दी जाये तो कुछ भी आज की पीढ़ी को प्रभावित करने लायक़ नहीं. म्यूजिक भी औसत है. हां, कहानी जारूर उस ऐतिहासिक दर्द को फर से कुरेद देती है जब सैकड़ों हिंदुओं की पंजाब में जान ली गई थी, लाखों को पंजाब छोड़ने को मजबूर किया गया था. वो पंजाब जहां आर्यों की कभी इतनी गहरी जड़ें थीं कि आज भी वहाँ के लोग नाम में ‘इंद्र’ लगाते हैं.
ये भी मूवी बताती है कि तत्कालीन सरकार उस वक़्त सुरक्षा देने में कितनी फेल थी और तब भी तमाम सिख थे जो उग्रवादियों और आतंक के ख़िलाफ़ थे. लेकिन कम बजट, छोटे चेहरों के चलते और कुछ ‘शॉकिंग एलीमेंट्स’ व अच्छी पैकेजिंग ना होने की वजह से ये मूवी उन दर्शकों तक पहुंच ही नहीं पाएगी जिनको कि इसे देखना चाहिए. हालांकि उग्रवादियों को खुलकर अरशद वारसी के किरदार का कई बार ‘गुंडे हैं’ बोलना इसे विवादों में ला सकता है.
Latest News in Hindi, Bollywood News, Tech News, Auto News, Career News और Rashifal पढ़ने के लिए देश की सबसे विश्वसनीय न्यूज वेबसाइट Zee News Hindi का ऐप डाउनलोड करें. सभी ताजा खबर और जानकारी से जुड़े रहें बस एक क्लिक में.
+91 120 4319808|9470846577
स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.